A small poem on confusion, a person goes through before working towards a goal.
क्या करूँ मैं?
क्या मुझे पाना
है?
मुझे भी अबतक है
कहाँ पता|
मंजिल तो तय हो
पहले,
मिल ही जाएगा
रास्ता|
सोचता हूँ, यूँही
निकल पड़ूं,
रास्ता ही मंजिल
बता देगा|
फिर सोचता हूँ,
अगर मोड़ आया कोई,
तो किस बुनियाद
पर करूँगा फैसला|
तो बस, मंजिल तय
करना ही पहली मंजिल है,
देखते है कहाँ ले
जाता मुस्तकबिल है|
सोचा एक फहरिस्त
बना देते हैं|
तरजीह के मताबिक,
हर हसरत लिख देते
हैं|
जो हसरत अव्वल
होगी,
वही मंजिल होगी|
तोलने लगा हसरतों
को,
पर कुछ समझ नहीं
आया|
ये हसरतें तो
लिपटी है एकदूसरे से,
जैसे तानाबाना है
कोई ऊनी धागों का|
बड़ी मुश्किल से,
हर धागा अलग
किया,
गिरहें पढ़ गयी
थी, उन्हें भी सुलझा दिया|
कहियों को तोडना
भी पड़ा, ज़रूरी था|
अब फहरिस्त तैयार
है,
पर सही रास्ते की
अबतक दरकार है|
क्या करूँ मैं?
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