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Showing posts from October, 2016

कुछ जानने निकल जाता हूँ..

Posting after a long long time. This poem is an expression of  my passion to listen people and talk to people, who have something in common, it can be a common profession, hobby or just the mutual urge to know each other. This poetry is actually a reason behind attending conferences, meetups and poetry sessions, despite being a not-so-social guy. आराम सहा नहीं जाता मन से, तो कुछ जानने निकल जाता हूँ| घर के सुकून से निकलकर, कोई जूनून ढूंढने निकल जाता हूँ| यूँ तो ख्यालों की आबादी काम नहीं मेरे जहां में, फिर भी औरों के सुनने चला जाता हूँ| सोच उतनी ही होती है, जितने में वो कैद रहती है, उस सोच को अक्सर आज़ाद करने निकल जाता हूँ| अक्सर मतभेदों से मुलाक़ात होती है,  कभी वक़्त जाया करते हैं, कभी उन्हें अपनाने को मजबूर हो जाता हूँ| मैं बातें करने के लिए जाना नहीं जाता, और सुननेवालों को जानता ही कौन है, व्यापारी हूँ सच्चा, कुछ कहे बिना, बहुत कुछ सुन समेट लाता हूँ| आराम सहा नहीं जाता मन से, तो कुछ जानने निकल जाता हूँ|