A very nostalgic poem describing the time we have with our friends..:) जब यार साथ होते हैं, तो ग़म कहाँ होते हैं! हंसी के ठहाकों को, हम घर से उठा लाते हैं! दर्द को तो चांटा लगाकर, अपने गाँव भेज देते हैं| जब यार साथ होते हैं, तो ग़म कहाँ होते हैं! अपने-अपने अरमानों के फ़साने, बड़े शौंक से सुनाते हैं! बड़े गौर से सुनते है हम, सुनकर खिल्ली फिर उड़ाते हैं| जब यार साथ होते हैं, तो ग़म कहाँ होते हैं! आदतें सिर्फ अपनी नहीं रहती, सबकी बन जाती है! ज़िन्दगी भी अपनी कहाँ होती है, सबकी हो जाती है| रास्तों से अपनी अलग ही यारी है, साथ उसीकी के ही तो हमने सीखी दुनियादारी है| गली-गली घूमते हैं, नुक्कड़ पर कहीं ठहेरते है| यूँही अपनी शामें बसर करते हैं| जेबों में रुपयों के पड़े लाले हैं, बस यार साथ हो तो अच्छे दिवाले भी हैं! जब यार साथ है, तो ग़मों की क्या औकात है? --धिरेन नवानी 'ध्रुव' Photo source: http://www.santabanta.com/photos/friendship/9024050.htm
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